'हरी खाद' के प्रयोग से कम लागत में करें अधिक उत्पादन।

'हरी खाद' का अभिप्राय उन पत्तीदार दलहनी फसलों से है, जिन की वृद्धि शीघ्र होती है, तथा बड़ी होने पर फूल एवं फल आने के पहले इन्हें जोत कर मृदा में दबा दिया जाता है। यह फसलें सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटित होकर मृदा में जीवाश्म तथा पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि करती है। यह फसलें अपने जड़ ग्रंथियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण से नाइट्रोजन का अवशोषण कर मिट्टी में स्थिर करने का कार्य करती है। इससे मृदा की भौतिक एवं रासायनिक संरचना में सुधार होता है। इसके प्रयोग से वातावरण तथा भूमि प्रदूषण की समस्या को भी समाप्त किया जा सकता है। रसायनिक उर्वरकों के कम प्रयोग से उत्पादन लागत में कमी करके, किसान भाइयों की आर्थिक स्थिति को बेहतर किया जा सकता है।

हरी खाद के लिए उपयुक्त फसल

  1. हरी खाद के लिए ऐसी फसल को लेते हैं, जिसमें शीघ्र वृद्धि करने की क्षमता हो।
  2. फसल प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों जैसे अधिक या कम ताप अधिक या कम वर्षा सहन करने वाली हो।
  3. फसल विभिन्न प्रकार की मृदा में पैदा होने में समर्थ हो।
  4. फसल की जल व पोषक तत्वों की मांग कम हो।
  5. फसल की वानस्पतिक वृद्धि (शाखाएं,पत्तियां ) अधिक हो एवं वानस्पतिक भाग मुलायम हो।
  6. फसल गहरी जड़ वाली हो, जिससे वह मृदा में गहराई तक जाकर अधिक से अधिक पोषक तत्व को खींच सके।
  7. चयन की गई दलहनी फसलों में अधिकतम वायुमंडलीय नाइट्रोजन का यौगीकीकरण करने की क्षमता होनी चाहिए।
  8. प्रति इकाई क्षेत्र से अत्यधिक हरा पदार्थ मिल सके एवं शीघ्र मृदा में सड़ सके।

हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली फसलें

1. ढैंचा - लवणीय मृदा के लिए उपयुक्त है। जिन स्थानों पर जल निकास ना हो अथवा कम या अधिक वर्षा वाली सभी परिस्थितियों में ढैंचा को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी वानस्पतिक   वृद्धि शीघ्र होने के कारण, यह हरी खाद के लिए एक उपयुक्त फसल है।

2. सनई- हरी खाद के लिए एक उत्तम फसल है। उत्तर भारत में इसका अधिक प्रचलन है।

3. ग्वार- देश के उत्तर और पश्चिमी भागों में जहां वर्षा कम होती है, इसका प्रयोग हरी खाद के लिए किया जाता है।

4. उड़द /मूंग- इसके फलियों को तोड़ने के बाद खेत में हरी खाद के रूप में पलट कर उपयोग में लाया जा सकता है।

हरी खाद के प्रयोग की विधियां


1. हरी खाद की स्थानिक विधि - इस विधि के अंतर्गत हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है, जिसमे हरी खाद का उपयोग करना होता है। यह विधि उन क्षेत्रों में अपनाई जाती है, जहां पर्याप्त वर्षा एवं सिंचाई उपलब्ध हो। ईस विधि में फसल को वानस्पतिक वृद्धि काल में (बुआई के 45-60 दिन ) मिट्टी में पलट दिया जाता है।यह विधि उत्तर भारत में अधिक प्रचलित है।

2. हरी खाद की अस्थानिक विधि - इस विधि के अंतर्गत हरी खाद की फसल को जिस खेत में प्रयोग करना है, उस खेत में ना उगाकर किसी अन्य खेत में उगाया जाता है। तत्पश्चात फसल की कोमल पत्तियों एवं शाखाओं को काटकर दूसरे खेत में दबा दिया जाता है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उपयोगी होती है। इसमें मृदा में कम नमी होने पर भी फसल आसानी से सड़ जाता है। यह विधि दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित है।


हरी खाद फसल बुवाई का समय


हमारे देश में विभिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती है। अतः सभी क्षेत्रों के लिए हरी खाद की फसलों की बुवाई का समय अलग-अलग हो सकता है। किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुसार अनुकूल फसल का चयन करके बुवाई वर्षा प्रारंभ होने के तुरंत बाद कर दें। अगर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, तो बुवाई वर्षा प्रारंभ होने के पूर्व भी कर सकते हैं।

फसल पलटाई का समय

फसल को एक विशेष अवस्था पर ही खेत में पलटने से मृदा को अधिकतम नाइट्रोजन एवं जीवाश्म  पदार्थ की मात्रा प्राप्त होती है। जब फसल की वानस्पतिक वृद्धि हो चुकी हो तथा फूल निकलना प्रारंभ हो गया हो। पौधे की शाखाएं एवं पत्तियां मुलायम हो उस समय फसल को पलटना उपयुक्त होता है। इस समय फसल में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा पर्याप्त होती है एवं रेशे कम होते हैं, जिस से फसल आसानी से सड़ जाता है। फसल को पलटने के लिए 'रोटावेटर' का प्रयोग करके कार्य अधिक बेहतर तरीके से किया जा सकता है। इसमें फसल को सीधे छोटे-छोटे टुकड़ो में काटकर मृदा में मिलाने की प्रक्रिया एक बार में ही पुरी कर दी जाती है, इससे समय की बचत के साथ साथ हरे पदार्थ का सड़ाव जल्दी पूरा हो जाता है।

हरी खाद के लाभ

  1. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में कई सूक्ष्म व वृहद पोषक तत्व प्राप्त होते हैं। जैसे - नाइट्रोजन, फास्फोरस,पोटाश, सल्फर,कैल्शियम,मैग्नीशियम इत्यादि।
  2. इससे मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि होती है, जो सूक्ष्म जीवों की संख्या को बढ़ाता है, जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता बढ़ती है।
  3. हरी खाद के प्रयोग से मृदा भुरभुरी, वायु संचार में वृद्धि एवं जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है।
  4. मृदा जनित रोगों की रोकथाम।
  5. विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में 45 से 50 kg नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मृदा में बढ़ाई जा सकती है।
  6. हरी खाद द्वारा जीवांश की मात्रा में वृद्धि कर, रेतीली व चिकनी मृदा की संरचना में सुधार की जा सकती है।
  7. हरी खाद में कार्बनिक अम्ल बनने से पीएच को कम करके मृदा क्षारीयता में कमी।
  8. मृदा सत्तह में पोषक तत्वों का संरक्षण होता है, जो अगले लगाई जाने वाली फसल को पुनः प्राप्त होता है।
  9. इसके प्रयोग से रसायनिक उर्वरकों में कमी करके टिकाऊ खेती कर सकते है।
  10. धान की रोपाई से पूर्व हरी खाद को पलट कर रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग में 10 % की कमी की जा सकती है।


Comments

  1. वर्मी कम्पोस्ट क्या होता है

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  2. https://www.khetibariinfo.com/2022/04/blog-post.html?m=1

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