आइए जाने क्या है श्री विधि ? कैसे इसके द्वारा कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है?
SRI क्या है ?
सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसिफिकेशन जिसे संक्षेप में SRI (श्री विधि) भी कहते हैं, धान की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें मृदा उत्पादकता, जल उपयोग दक्षता, श्रम शक्ति एवं निवेश की गई पूंजी की दक्षता एक साथ बढ़ाने की क्षमता है। श्री विधि से उगाई गई फसल परंपरागत विधि से उगाई गई फसल की अपेक्षा औसतन 10-30% तक अधिक पैदावार देती है। श्री विधि के अंतर्गत ना केवल अतिरिक्त उपज प्राप्त होती है, बल्कि 50 % तक जल की बचत, 90 % तक बीज की बचत, मृदा स्वास्थ्य में सुधार, 30 - 40 % तक रसायनिक उर्वरक की बचत होती है। इस पद्धति से कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
SRI पद्धति से धान की खेती
भूमि का चयन -
श्री विधि मध्यम एवं भारी भूमि जिनमें सिंचाई तथा जल निकास की उचित व्यवस्था हो के लिए उपयुक्त है । उसरीली एवं निचले क्षेत्र जहां जलभराव की संभावना रहती है, वैसी भूमि के लिए श्री विधि उपयुक्त नहीं है।
नर्सरी तैयार करना -
श्री विधि के अंतर्गत कम अवधि ( 8-12 दिन) की पौधे रोपी जाती है। नर्सरी को मुख्य खेत के समीप रखने का प्रयास करें, जिससे नर्सरी से पौध निकालने के बाद शीघ्र अति शीघ्र उसकी रोपाई हो सके। नर्सरी तैयार करने हेतु 5 - 6 इंच तक ऊंची तथा 6 फुट चौड़ी आवश्यकतानुसार लंबाई की क्यारियां बनाएं, जिससे पौध को आसानी से निकाला जा सके। एक हेक्टेयर खेत की रोपाई के लिए 1000 वर्ग फुट की नर्सरी पर्याप्त होगी।
क्यारियां इस प्रकार तैयार करते हैं-
पहली परत - 1 इंच मोटी सड़ी गोबर की खाद
दूसरी परत - 1.5 इंच मोटी खेत की भुरभुरी मिट्टी
तीसरी परत- 1 इंच मोटी सड़ी गोबर की खाद
चौथी परत - 2 पॉइंट 5 इंच मोटी खेत की भुरभुरी मिट्टी
उपरोक्त सभी परतों को मिलाकर भुरभुरा बना लें। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 6 kg बीज की आवश्यकता होगी। तैयार की गई क्यारियों में बीज को एक समान रूप से फैलाकर उसे सड़ी गोबर की खाद या खेत की भुरभुरी मिट्टी या पुआल से ढक दें। जिससे बीज को धूप,वर्षा तथा चिड़ियों के द्वारा नुकसान से बचाया जा सके। क्यारियों में पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए फव्वारा विधि से सिंचाई करना बेहतर होगा। इसके अलावा क्यारियों के मध्य बनाई गई नालियों में पानी चला कर भी सिंचाई की जा सकती है।
खेत की तैयारी-
श्री विधि का लाभ जैविक ढंग से खेती करने पर अपेक्षाकृत अधिक पाया गया है। अतः खेत की तैयारी के समय 15 टन गोबर/कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं। हरी खाद हेेतु ढैचा की लगभग 45 दिन की फसल को खेत में सड़ने हेतु पानी भर कर छोड़ दे। ढैचा सड़ने में लगभग 10 दिन का समय लगेगा। अतः उचित होगा कि जिस दिन ढैचा पलटा जाए उसी दिन नर्सरी डाल दी जाए।
नर्सरी से पौधे निकालना -
श्री विधि में 8 से 12 दिन पुराने पौध का प्रयोग किया जाता है, जब पौधे में शुरुआत की दो पत्तियां आ जाए। पौधे को सावधानीपूर्वक खुरपी की सहायता से इस प्रकार निकाले की पौधे में बीज, चोल एवं मिट्टी लगी रहे।
रोपाई -
श्री विधि में पौध को 25 × 25 सेंटीमीटर की दूरी पर 2-3 सेंटीमीटर की गहराई पर अंगूठे की सहायता से 1-1 पौधे को बगैर पानी भरे खेत में लगाएं। इस विधि में एक स्थान पर केवल 1 पौधे को लगाया जाता है। इसमें रोपाई के समय खेत में जलभराव की आवश्यकता नहीं है, केवल पर्याप्त नमी होनी चाहिए पौधे से पौधे की दूरी निर्धारित करने के लिए रस्सी में निर्धारित दूरी पर गांठ लगाकर या लकड़ी या लोहे के बने वर्गाकार मार्कर का प्रयोग किया जाता है। पौधों की जड़ों को सूखने से बचाने के लिए पौधशाला से पौधे निकालने के बाद आधे घंटे के अंदर लगाने का प्रयास करें।
खरपतवार नियंत्रण-
श्री विधि में खरपतवार नियंत्रण हेतु यांत्रिक विधि सस्ती एवं उपयुक्त है। इसके लिए कोनोवीडर नामक यंत्र का प्रयोग किया जाता है। कोनोवीडर को चलाने से खरपतवार खेत में ही पलट कर मिट्टी में सड़कर जैविक खाद का काम करते हैं, जिससे पौधों को पोषक तत्व प्राप्त होता है। कोनोवीडर के प्रयोग से मिट्टी भुरभुरी हो जाती है एवं मृदा में वायु का संचार बढ़ जाता है । जड़़ों के पूर्ण विकसित होने के फलस्वरुप पौधों की वानस्पतिक एवं पुनरुत्पादक वृद्धि होती है। रोपाई के 10 दिन बाद से 10 दिन के अंतराल पर कोनोवीडर चलाकर खरपतवार नियंत्रण किया जाना आवश्ययक है। कोनोवीडर के संचालन हेतु खेत में नमी का होना आवश्यक है।
जल प्रबंधन -
उचित जल प्रबंधन हेतु खेत समतल हो तथा खेत में क्यारियों के मध्य सिंचाई एवं जल निकासी के लिए नालियों का निर्माण करें। श्री विधि में फसल की प्रारंभिक अवस्था में पानी भर कर रखना आवश्यक नहीं है। मिट्टी में हल्की दरारें पड़ने पर खेत में हल्की सिंचाई करें। धान में पुष्पगुच्छ प्रारंभ होने की अवस्था से फसल की परिपक्वता तक लगभग 2-3 सेंटीमीटर पानी बनाए रखने की आवश्यकता है, परंतु जब 70% दाने कड़े हो जाएं फिर खेत में पानी की आवश्यकता नहीं है।
श्री विधि के लाभ
1. कम बीज की आवश्यकता।
2. उत्पादन में वृद्धि।
3. फसल अवधि में कमी।
4. कम सिंचाई जल की आवश्यकता।
5. कम उर्वरक की आवश्यकता।
6. स्वस्थ पौध विकास के कारण कीट तथा बीमारियों में कमी।
7. यांत्रिक निकाय से सूक्ष्मजीवों की अधिक सक्रियता के कारण मृदा संरचना एवं मृदा उर्वरता में सुधार।
8. उच्च गुणवत्ता युक्त उत्पादन।
9. पर्यावरण के लिए अनुकूल।
10. प्रजनक/आधारीय/प्रमाणित बीज उत्पादन हेतु अधिक उपयुक्त।
11. कम लागत एवं अधिक लाभ।
श्री विधि की सीमाएं -
1. उच्च मजदूरी लागत।
2. आवश्यक कौशल हासिल करने में कठिनाई।
3. सिंचाई स्रोत उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में अनुकूल नहीं।
4. जलभराव वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूल नहीं।
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